भाजपा द्वारा राष्ट्रपति पद के लिए श्री राम नाथ कोविंद का नाम घोषित करते ही, पूरे देश के राजनितिक हलकों, मीडिया और सोशल मीडिया में दो शब्द 'दलित' और 'आरक्षण' बड़ी तेज़ी से ट्रेंड करने लगे। मानो श्री कोविंद की और कोई क्वालिफिकेशन ही नहीं और दुनिया में दलित ही एक ऐसी प्रजाति है जो केवल आरक्षण से अपना गुज़ारा चलाती है। हैरानी होती है हमारे इस तथाकथित बुद्धिजीवी मीडिया पर। अरे भाई जब कोई भी भारत का नागरिक देश का राष्ट्रपति बन सकता है तो फिर पद की गरिमा का ख्याल रखते हुए भावी राष्ट्रपति को क्यों ज़बरदस्ती जाति का ताज पहना रहे हो। या फिर यह समझा जाये कि आप अपनी सदियों पुरानी जातिगत भड़ास निकाल रहे हो। इतना ही नहीं इसी बहाने बहुत सारे लोग आरक्षण पर भी अपनी खूब जम कर भड़ास निकाल रहे हैं। कोई कहता है कि आरक्षण और दलित वोट बैंक की राजनीती से समाज में जातिवाद बढ़ेगा। बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि इस देश की सभी समस्याओं की जड़ ही आरक्षण है। अधिकाँश जनसँख्या के अनपढ़ रहने की वजह दलित आरक्षण, गाँवों और किसानो की बदहाली की वजह दलित आरक्षण, महिलाओं की दुर्दशा की वजह दलित आरक्षण, बिगड़ती कानून व्यवस्था की वजह भी दलित आरक्षण ही है।
क्या आरक्षण के कारण दलितों की सरकार में भागीदारी इतनी बढ़ गई है कि लोक सेवा का अधिकांश कामकाज उन्हीं से होता है। भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्टस में प्रकाशित आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि क्लास-1 सेवाओं में दलितों की भागीदारी 12 से 14% ही रही है जोकि सरकार द्वारा निर्धारित आरक्षण सीमा 15% से कहीं कम है । ऐसी ही स्थिति आदिवासियों के आरक्षण की भी है। उनकी भागीदारी भी निर्धारित आरक्षण सीमा यानी 7.5 प्रतिशत से कहीं कम यानी 4 से 5 प्रतिशत रही है। ऐसे में यदि आरक्षण का प्रावधान हटा दिया जाए तो सरकारी नियुक्तियों में इन वर्गों की भागीदारी शून्य ही हो जाएगी।
अब जो लोग यह कहते हैं कि आरक्षण की वजह से देश में समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं उनसे पूछा जाए कि क्या यह समस्याएं दलित और आदिवासियों की देन है या फिर सरकार और सरकारी सेवाओं में जिनका प्रभुत्व है उनकी वजह से। सरकारी बैंकों के एनपीए इतना बढ़ गए हैं तो क्या इसके लिए दलित जिम्मेदार है। दलितों आदिवासियों को तो स्केल 4 से ऊपर विरले ही जाने दिया जाता। आज देश के किसान बेहाल है उनको अच्छी शिक्षा व्यवस्था नहीं है। खेती के लिए कम भूमि के कारण वह यह नहीं समझ पाते कि वहां क्या उगाएं और क्या करें। देखने में आता है कि जिस किसान के पास मात्र 1 एकड़ जमीन भी नहीं है उसको क्रॉप लोन दे दिया जाता है। फसल के फेल हो जाने पर वह लोन की वापसी नहीं कर पाते । क्या बैंक के अधिकारी का दायित्व नहीं है कि सम्बन्धी एजेंसी के माध्यम से छोटे किसानों को उपयुक्त काम के लिए ही लोन देकर हैंड होल्डिंग की कराई जाये जिसमें कि वो सफल हो सकें और उनकी आमदनी बढ़ सके। खेती के अलावा खेती आधारित अनेकों ऐसे धंधे हैं जहां सूक्ष्म किसानों को प्रवृत किया जा सकता है। किसानों के लिए उनके उत्पाद को सुरक्षित रखने के लिए कोई भंडारण व्यवस्था नहीं है। मजबूरन उन्हें औने-पौने दाम में अपनी फसल को बेचना पड़ता है जिसका फायदा देश के सेठ साहूकार उठाते हैं। क्या यह समस्याएं दलित और आदिवासियों के आरक्षण की वजह से हैं।
सोशल मीडिया पर दलितों और आरक्षण को कोसने वालों से प्रार्थना करूंगा यदि में वह सच्चे देशभक्त हैं तो देश की इन समस्याओं के निराकरण में अपना योगदान दे। आरक्षण व्यवस्था केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के बहुत सारे देशों में किसी ना किसी रूप में लागू है। साल 1969 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में आयोजित “कन्वेंशन ऑन एलिमिनेशन ऑफ आल फॉर्म्स ऑफ़ रेशिअल डिस्क्रिमिनेशन” में यह माना गया था कि “समानता के सिद्धांत में कभी-कभी राष्ट्रों को सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता होती है ताकि नियमों को कम किया जा सके या नियमों से उन शर्तों को समाप्त किया जा सके जो निषिद्ध भेदभाव को बनाए रखने में मदद करती हैं।” इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, कन्वेंशन के इसी प्रस्ताव के अंतर्गत निम्नलिखित देशों में भेदभाव खत्म करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई के कदम उठाए गए हैं:
- यूनाइटेड किंगडम में समानता अधिनियम 2010 है I
- संयुक्त राज्य अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई हैI
- कनाडा में रोजगार इक्विटी (कनाडा) है जो कि आदिवासी और अल्पसंख्यकों को प्रभावित करती हैI
- चीन में जातीय अल्पसंख्यक और महिलाएं के लिए कोटा है I
- फिनलैंड में स्वीडिश स्पीकर के लिए कोटा है I
- जर्मनी में उनके जिमनैजियम प्रणाली में कोटा है I
- इसराइल सकारात्मक कार्रवाई है I
- जापान में बुराकुमिन को मदद करने की नीतियां हैं, जिन्हें जापान के बहिष्कार समूह माना जाता है।
- मैसेडोनिया अल्बेनियाई लोगों के लिए कोटा है I
- मलेशिया में मलेशियाई नई आर्थिक नीति है I
- न्यूज़ीलैंड में मॉरीस और पॉलिनेशियन के लिए सकारात्मक कार्रवाई है I
- नॉर्वे को पीसीएल के बोर्डों के 40% महिलाओं की आवश्यकता है।
- रोमा के लिए रोमा में कोटा है ।
- दक्षिण अफ्रीका में रोजगार इक्विटी है।दक्षिण कोरिया ने चीनी और उत्तरी कोरिया के लिए सकारात्मक कार्रवाई की है।
- श्रीलंका में ईसाई और तमिलों के लिए नियम हैं।
- स्वीडन में सामान्य सकारात्मक कार्रवाई है।
- ब्राज़ील में वेस्टिबुलर है।
इसमें दिलचस्प केस दक्षिण अफ्रीका का है जिसने रंगभेद की नीति से सन 1994 में मुक्ति हासिल की थी। इससे पहले वहां में काले लोगों को भेड़ बकरियों की तरह बाड़ों में रखा जाता था और वो बिना इजाजत अपनी बाउंड्री भी पार नहीं कर सकते थे। आजादी के तुरंत बाद वहां की सरकार की नीति के अनुसार यह भेड़ बकरियों की तरह रहने वाले लोग सरकार के सभी प्रकार के कामों में जुट गए और उनका देश भारत से भी अधिक तेज गति से बढ़ा। इधर हमारे देश में आजादी के 70 साल बाद भी दलितों की काबिलियत पर सवालिया चिन्ह लगा रहता है। इसे क्या कहा जाए, एक मानसिक दिवालियापन या फिर एक धार्मिक बीमारी जो कि एक विशेष प्रकार की विचारधारा से पैदा होती है।
जो लोग आरक्षण का विरोध करते हैं उनसे मुझे संपूर्ण सहानुभूति है। मैं उनका ध्यान हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के उन वक्तव्यों की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा जिसमें उन्होंने कहा था कि “रिजर्वेशन का महत्व तब तक है जब तक अवसरों का आभाव है। जब अवसरों का आभाव खत्म हो जाएगा, रिजर्वेशन पर लड़ाई भी खत्म हो जाएगी।” तो क्यों नहीं हम सब लोग इस बात की मांग रखें देश में अवसरों का अभाव खत्म हो। अधिक से अधिक स्कूल कॉलेज हों, अधिक से अधिक पढ़ने के अवसर हों, अधिक से अधिक बिजनेस धंधे हों, नौकरियां हों, कामकाज हो जिससे कि यह खींचतान खत्म हो।
यश पाल
नई दिल्ली, दिनांक 24.6.2017
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